हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला के बिल्कुल समीप हैं-इंद्रुनाग मंदिर और भागसू नाग मंदिर। ये दोनों लोकप्रिय स्थान स्थानीय लोगों की आस्था के प्रतीक हैं। इंद्रुनाग मंदिर धर्मशाला के ही एक पर्वत श्रृंखला में कुछ अधिक ऊंचाई पर पूर्व दिशा में स्थित है। उत्तर में धौलाधार पर्वत की स्वप्निल छटा सलवटी बर्फीली सफेद चादर में लिपटी दिखाई देती है और दक्षिण में कांगडा का विहंगम दृश्य देखने को मिलता है। शीतकाल में इंद्रुनाग में बर्फ पडती है। मान्यता है कि इंद्रुनाग देवता सच्चे देवता हैं।

स्थानीय पंडित पवन कुमार के अनुसार इंद्रुनाग देवता की कथा बडी रोचक है। उसके अनुसार एक राक्षस शिव का खासा भक्त था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उसे दर्शन दिया और उसे वर मांगने को कहा। राक्षस ने कहा, मुझे इंद्र की पदवी और शक्तियां दे दो। तथास्तु कहकर शिवजी अंतrdhर्ध्यान हो गए। वरदान पाकर राक्षस अत्यंत प्रसन्न हुआ। वह जल्द से जल्द इंद्रलोक पहुंचना चाहता था लिहाजा उसने चार कहारों का प्रबंध किया। पालकी में बैठकर उसने कहारों को आदेश दिया कि वे जल्दी से जल्दी इंद्रलोक पहुंचाए। कहारों की तेज चाल के बावजूद राक्षस उन्हें सर्प-सर्प कह रहा था (संस्कृत शब्द में सर्प का अर्थ जल्दी या सरपट चलने से है) इस पर एक कहार को क्रोध आ गया और उसने राक्षस को शाप दे दिया कि तू सर्प हो जा त्वद्पि सर्पो भव:।

शिव की माया

कहार तो शिव की माया थे। राक्षस ने तभी शिव जी का ध्यान कर उनसे गुहार लगाई कि उनके दिए वरदान का क्या होगा? इस पर शिवजी ने कहा कि न तो मेरा वरदान मिथ्या होगा और न ही कहार रूपी भक्तों का शाप व्यर्थ जाएगा। अत: तुम इंद्र न बनकर इंद्रुनाग के नाम से जाने जाओगे। जो इंद्र की शक्तियां हैं वे तुम्हारे पास भी होंगी।

इंद्रुनाग की दूसरी कथा हिमाचल के जनजातीय लोगों से जुडी है। इन लोग को गद्दी कहा जाता है। भेड-बकरियां पालना और ऊन कातना इनका मुख्य व्यवसाय रहा है। ये गद्दी अपने जानवरों को खासी ऊंचाई तक पहाडों में घास चराने ले जाते हैं। वर्षा ऋतु के उपरांत ज्यों-ज्यों सर्दी बढने लगती है, त्यों-त्यों ये लोग जानवरों सहित नीचे की तलहटियों में आना प्रारंभ कर देते हैं। ऐसे ही आवागमन के दौरान गद्दियों को एक बालक मिल जाता था। जब तक वे अपना पडाव पहाड़ पर कहीं भी डाले रहते थे वह बालक उनमें घुल मिलकर रहता था। परंतु कभी किसी को एहसास तक नहीं हुआ कि यह बालक देवता है। जहां भी कंदराएं मिल जाएं अक्सर गद्दी वहां अपना पडाव डालते हैं। अत: एक दिन एक गद्दी बालक के साथ एक कंदरा की ओर बढा तो उसे एक अजगर मिला। गद्दी बुरी तरह घबरा गया। तुरंत वह अजगर बालक रूप में बदल गया और गद्दी को घबराने से मना किया। यह वही बालक था जो गद्दी के साथ चल रहा था। गद्दी हैरान था वह नतमस्तक हो गया। बालक ने भी वही स्थान चुन लिया। गद्दी आते जाते उस स्थान पर दूध चढाता और जानवर की बलि इंद्रुनाग को भेंट करता रहा।

सर्प के रूप में इस देवता की ख्याति बढती गई। मानव और श्रद्धालुओं की संख्या भी। कालांतर में बलि प्रथा समाप्त हो गई। पहाडों के कठिन जीवन यापन के कारण अनेक लोगों ने इंद्रुनाग देवता की मूर्ति जहां भी स्थापित थी वहां देवता की नई मूर्ति को छुआकर अपने गांव में स्थापित कर लिया। तरह-तरह की अनोखी और शुभ घटनाओं से इंद्रु देवता की शक्तियों की मान्यता बढने लगी। श्रद्धालुओं की मनोकामनाएं पूरी होती गई और भक्तों की संख्या बढती गई। यह रमणीक पूजा स्थल धर्मशाला तहसील के ठऊ गांव में स्थित है। इसका विकास चेन्नई के एक बाबा ने किया।

पिल्लई स्वामी बाबा त्रिवेणी भारती के नाम से प्रसिद्ध यह बाबा पहले भारतीय थलसेना में सेवा करते थे। नौकरी छोडकर वह ठऊ गांव के इस पहाड पर बने इंद्रु नाग देवता के छोटे से मंदिर के विकास में लग गए और गुफा बनाकर नित्य तपस्या करने लगे। 32 वर्ष की तपस्या के पश्चात वह वहीं ब्रह्मलीन हो गए। मंदिर के पास ही उनकी समाधि बनी हुई है।

भागसू नाग मंदिर

धर्मशाला की ऊपरी तलहटी में देवदार के घने वृक्षों के बीच लगभग समुद्रतल से छह हजार फुट की ऊंचाई पर बसा है मैक्लोडगंज। यहां पर बौद्ध धर्मगुरु दलाईलामा की निर्वासित तिब्बती सरकार का मुख्यालय है। लिहाजा बडी संख्या में तिब्बती शरणार्थी यहां रहते हैं। मैक्लोडगंज से दो किलोमीटर आगे प्रसिद्ध भागसू नाग मंदिर है। कुछ समय पहले तक इस स्थान पर पैदल जाया जाता था परंतु अब निजी वाहन भी मंदिर के समीप पहुंच जाते हैं।

रोचक कथा

प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता में बना यह मंदिर भागसू नाग की रोचक कथा लिए हुए है। यहां के शिलापट्ट पर महंत गणेश गिरी के हवाले से 1972 में लिखे वर्णन के अनुसार अजमेर का दैत्य राजा भागसू के नाम से जाना जाता था। वह बडा मायावी और जादूगर था। उसके राज्य में एक बार भारी जल संकट हो गया। लोग त्राहि-त्राहि करने लगे तब कुछ प्रजा प्रमुख मिलकर राजा के पास गए और कोई उपाय करने की प्रार्थना की। राजा ने उन्हें जल संकट से प्रजा को उबारने का आश्वासन दिया और कमंडल उठाकर चल पडा। वह धौलाधार पर्वत श्रृंखला में 18 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित नाग डल अर्थात नाग झील पर पहुंचा। उसने झील के पवित्र जल को माया से अपने कमंडल में समेटा और लौट चला अपने देश। कुछ ही देर में नाग देवता अपनी झील पर आए तो देखते हैं कि झील का सारा पानी सूख गया है। उन्हें सारी लीला समझते देर न लगी। भागसू के पदचिह्नों को देखते हुए वह नीचे आए। भागसू अभी बहुत दूर नहीं पहुंचा था। आज के भागसू नाग मंदिर वाले स्थान पर नाग देवता ने उसे पकड लिया। दोनों में भयानक युद्ध हुआ।

मायावी राजा भागसू मारा गया और कमंडल का जल बिखर गया। नाग देवता के डल में फिर से जल भर गया और युद्ध वाले स्थान पर पवित्र जल का चश्मा बहने लगा। मरते समय राजा भागसू ने नाग देवता से अपने और अपने राज्य के कल्याण की प्रार्थना की तो नाग देवता ने उसे वरदान दिया कि आज से तू केवल भागसू नहीं बल्कि भागसूनाग के नाम से प्रसिद्ध होगा और देवता के रूप में इसी स्थान पर तेरी पूजा अर्चना होगी।

किवंदतियों के अनुसार द्वापर युग की इस घटना को हजारों वर्ष बीत चुके हैं। लेकिन यहां मंदिर कलयुग में राजा धर्मचंद्र ने बनवाया। लिहाजा दावा यह है कि मंदिर पांच हजार साल से भी ज्यादा पुराना है।

जनमान्यता यह भी है कि एक-डेढ वर्ष के अंतराल से चश्मे के मुहाने पर या उसके आसपास नाग देवता दर्शन देते हैं। यही कारण है कि न केवल स्थानीय लोगों की बल्कि दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं की भागसू नाग देवता में गूढ आस्था है।

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