यूं तो देश की ज्यादातर पहाडि़यों में कहीं न कहीं शिव का कोई स्थान मिल जाएगा, लेकिन शिव के निवास के रूप में सर्वमान्य कैलाश पर्वत के भी एक से ज्यादा प्रतिरूप पौराणिक काल से धार्मिक मान्यताओं में स्थान बनाए हुए हैं। तिब्बत में मौजूद कैलाश-मानसरोवर को सृष्टि का केंद्र कहा जाता है। वहां की यात्रा आर्थिक, शारीरिक व प्राकृतिक, हर लिहाज से दुर्गम है। उससे थोड़ा ही पहले भारतीय सीमा में पिथौरागढ़ जिले में आदि-कैलाश या छोटा कैलाश है। इसी तरह एक और कैलाश हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में है। ये दोनों कैलाश भी बड़े कैलाश की ही तरह शिव के निवास माने जाते हैं और इनका पौराणिक महात्म्य भी उतना ही बताया जाता है।

मणिमहेश-कैलाश

धौलाधार, पांगी व जांस्कर पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा यह कैलाश पर्वत मणिमहेश-कैलाश के नाम से प्रसिद्ध है और हजारों वर्षो से श्रद्धालु इस मनोरम शैव तीर्थ की यात्रा करते आ रहे हैं। यहां मणिमहेश नाम से एक छोटा सा पवित्र सरोवर है जो समुद्र तल से लगभग 13,500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। इसके गगनचुम्बी हिमाच्छादित शिखर की ऊंचाई समुद्र तल से लगभग 18,564 फुट है। मणिमहेश-कैलाश क्षेत्र हिमाचल प्रदेश में चम्बा जिले के भरमौर में आता है। चम्बा के ”गजटियर- 1904” में उपलब्ध जानकारी के अनुसार सन् 550 ईस्वी में भरमौर शहर सूर्यवंशी राजाओं के मरु वंश के राजा मरुवर्मा की राजधानी था। भरमौर में स्थित तत्कालीन मंदिर समूह आज भी उस समय के उच्च कला-स्तर को संजोये हुए अपना चिरकालीन अस्तित्व बनाए हुए हैं। इसका तत्कालीन नाम था ‘ब्रह्मपुरा’ जो कालांतर में भरमौर बना। भरमौर के एक पर्वत शिखर पर ब्रह्माणी देवी का तत्कालीन मंदिर है। यह स्थान ब्रह्माणी देवी की पर्याय बुद्धि देवी और इसी नाम के स्थानीय पर्याय नाम से प्रसिद्ध बुद्धिल घाटी में स्थित है। मणिमहेश- कैलाश भी बुद्धिल घाटी का ही एक भाग है। मरु वंश के राजाओं का शासनकाल बहुत लंबा रहा।

वैसे तो कैलाश यात्रा का प्रमाण सृष्टि के आदि काल से ही मिलता है। फिर 550 ईस्वी में भरमौर नरेश मरुवर्मा के भी भगवान शिव के दर्शन-पूजन के लिए मणिमहेश कैलाश आने-जाने का उल्लेख मिलता है। लेकिन मौजूदा पारंपरिक वार्षिक मणिमहेश-कैलाश यात्रा का संबंध ईस्वी सन् 920 से लगाया जाता है। उस समय मरु वंश के वंशज राजा साहिल वर्मा (शैल वर्मा) भरमौर के राजा थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। एक बार चौरासी योगी ऋषि इनकी राजधानी में पधारे। राजा की विनम्रता और आदर-सत्कार से प्रसन्न हुए इन 84 योगियों के वरदान के फलस्वरूप राजा साहिल वर्मा के दस पुत्र और चम्पावती नाम की एक कन्या को मिलाकर ग्यारह संतान हुई। इस पर राजा ने इन 84 योगियों के सम्मान में भरमौर में 84 मंदिरों के एक समूह का निर्माण कराया, जिनमें मणिमहेश नाम से शिव मंदिर और लक्षणा देवी नाम से एक देवी मंदिर विशेष महत्व रखते हैं। यह पूरा मंदिर समूह उस समय की उच्च कला-संस्कृति का नमूना आज भी पेश करता है। राजा साहिल वर्मा ने अपने राज्य का विस्तार करते हुए चम्बा (तत्कालीन नाम- चम्पा) बसाया और राजधानी भी भरमौर से चम्बा में स्थानांतरित कर दी। उसी समय चरपटनाथ नाम के एक योगी भी हुए।

चम्बा गजटियर में वर्णन के अनुसार योगी चरपटनाथ ने राजा साहिल वर्मा को राज्य के विस्तार के लिए उस इलाके को समझने में काफी सहायता की थी। गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण पत्रिका के शिवोपासनांक में छपे एक लेख के अनुसार मणिमहेश-कैलाश की खोज और पारंपरिक वार्षिक यात्रा आरंभ करने का श्रेय योगी चरपटनाथ को जाता है। तभी से लगभग दो सप्ताह के मध्य की जाने वाली यह वार्षिक यात्रा श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्ण अष्टमी) से श्रीराधाष्टमी (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी) के मध्य (इस वर्ष 16 अगस्त से 1 सितंबर 2006 तक) आयोजित की जाती है। हालांकि इस यात्रा के अलावा भी यहां जाया जा सकता है। निस्संदेह ही लगभग 15 किमी. की खड़ी पहाड़ी चढ़ाई कठिन है लेकिन रोमांच व रास्ते की प्राकृतिक सुंदरता इसमें आनंद जोड़ देते हैं।

यह यात्रा शुरू होती है हडसर (प्राचीन नाम हरसर) नामक स्थान से जो सड़क मार्ग का अंतिम पड़ाव है। यहां से आगे पहाड़ी मार्ग ही एकमात्र माध्यम है जिसे पैदल चलकर या फिर घोड़े-खच्चरों की सवारी द्वारा तय किया जाता है। किसी समय में पैदल यात्रा चम्बा से ही आरम्भ की जाती थी। सड़क बन जाने के बाद यह यात्रा भरमौर से आरंभ होती रही और अब यह साधारण तौर पर श्रद्धालुओं के लिए यह यात्रा हडसर से आरंभ होती है। लेकिन यहां के स्थानीय ब्राह्मणों-साधुओं द्वारा आयोजित पारंपरिक छड़ी यात्रा तो आज भी प्राचीन परंपरा के अनुसार चम्बा के ऐतिहासिक लक्ष्मीनारायण मंदिर से ही आरंभ होती है। हडसर से मणिमहेश-कैलाश की दूरी लगभग 15 किलोमीटर है जिसके मध्य में धन्छो नामक स्थान पड़ता है। जहां भोजन व रात्रि विश्राम की सुविधा उपलब्ध होती है।

गौरीकुंड

धन्छो से आगे और मणिमहेश-सरोवर से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर पहले गौरीकुंड है। पूरे पहाड़ी मार्ग में गैर सरकारी संस्थानों द्वारा यात्रियों के लिए नि:शुल्क लंगर सेवा उपलब्ध करायी जाती है। गौरीकुंड से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर पर स्थित है मणिमहेश- सरोवर आम यात्रियों व श्रद्धालुओं के लिए यही अंतिम पड़ाव है। ध्यान देने की बात है कि कैलाश के साथ सरोवर का होना सर्वव्यापक है। तिब्बत में कैलाश के साथ मानसरोवर है तो आदि-कैलाश के साथ पार्वती कुंड और भरमौर में कैलाश के साथ मणिमहेश सरोवर। यहां पर भक्तगण सरोवर के बर्फ से ठंडे जल में स्नान करते हैं। फिर सरोवर के किनारे स्थापित श्वेत पत्थर की शिवलिंग रूपी मूर्ति (जिसे छठी शताब्दी का बताया जाता है) पर अपनी श्रद्धापूर्ण पूजा-अर्चना अर्पण करते हैं। इसी मणिमहेश सरोवर से पूर्व दिशा में स्थित विशाल और गगनचुंबी नीलमणि के गुण धर्म से युक्त हिमाच्छादित कैलाश पर्वत के दर्शन होते हैं।

हिमाचल पर्यटन विभाग द्वारा प्रकाशित प्रचार-पत्र में इस पर्वत को ”टरकोइज माउंटेन” लिखा है। टरकोइज का अर्थ है वैदूर्यमणि या नीलमणि। यूं तो साधारणतया सूर्योदय के समय क्षितिज में लालिमा छाती है और उसके साथ प्रकाश की सुनहरी किरणें निकलती हैं। लेकिन मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्य उदय होता है तो सारे आकाशमंडल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश की किरणें नीले रंग में निकलती हैं जिनसे पूरा वातावरण नीले रंग के प्रकाश से ओतप्रोत हो जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि इस कैलाश पर्वत में नीलमणि के गुण-धर्म मौजूद हैं जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीली रंग जाती हैं।

पिंडी रूप में दृश्यमान शिखर

कैलाश पर्वत के शिखर के ठीक नीचे बर्फ से घिरा एक छोटा-सा शिखर पिंडी रूप में दृश्यमान होता है। स्थानीय लोगों के अनुसार यह भारी हिमपात होने पर भी हमेशा दिखाई देता रहता है। इसी को श्रद्धालु शिव रूप मानकर नमस्कार करते हैं। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार वसंत ऋतु के आरंभ से और वर्षा ऋतु के अंत तक छह महीने भगवान शिव सपरिवार कैलाश पर निवास करते हैं और उसके बाद शरद् ऋतु से लेकर वसंत ऋतु तक छ: महीने कैलाश से नीचे उतर कर पतालपुर (पयालपुर) में निवास करते हैं। इसी समय-सारिणी से इस क्षेत्र का व्यवसाय आदि चलता था। शीत ऋतु शुरू होने से पहले यहां के निवासी नीचे मैदानी क्षेत्रों में पलायन कर जाते थे। और वसंत ऋतु आते ही अपने मूल निवास स्थानों पर लौट आते थे। श्रीराधाष्टमी पर मणिमहेश-सरोवर पर अंतिम स्नान इस बात का प्रतीक माना जाता है कि अब शिव कैलाश छोड़कर नीचे पतालपुर के लिए प्रस्थान करेंगे।

इसी प्रकार फागुन मास में पड़ने वाली महाशिवरात्रि पर आयोजित मेला भगवान शिव की कैलाश वापसी के उपलक्ष्य में आयोजित किया जाता है। पर्यटन की दृष्टि से भी यह स्थान अत्यधिक मनोरम है। इस कैलाश पर्वत की परिक्रमा भी की जा सकती है, लेकिन इसके लिए पर्वतारोहण का प्रशिक्षण व उपकरण अति आवश्यक हैं।

सालाना मणिमहेश यात्रा हडसर नामक स्थान से शुरू होती है जो भरमौर से लगभग 17 किलोमीटर, चम्बा से लगभग 82 किलोमीटर और पठानकोट से लगभग 220 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पंजाब में पठानकोट मणिमहेश-कैलास यात्रा के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन है जो दिल्ली-उधमपुर मुख्य रेलमार्ग पर है। निकटतम हवाई अड्डा कांगड़ा है। हडसर हिमाचल राज्य परिवहन की बसों द्वारा भलीभांति जुड़ा हुआ है। पड़ोसी राज्यों व दिल्ली से भी चम्बा तक की सीधी बस सेवा सुलभ है।

ट्रैकिंग

पैदल मार्ग भी शिव के पर्वतीय स्थानों के साथ जुड़ी हुई शर्त है। कैलाश, आदि कैलाश या मणिमहेश कैलाश-सभी दुर्गम बर्फीले स्थानों पर हैं। इसलिए यहां जाने वालों के लिए एक न्यूनतम सेहत तो चाहिए ही। जरूरी गरम कपड़े व दवाएं भी हमेशा साथ होनी चाहिए। मणिमहेश झील के लिए सालाना यात्रा के अलावा भी जाया जा सकता है। मई, सितंबर व अक्टूबर का समय इसके लिए उपयुक्त है। रोमांच के शौकीनों के लिए धर्मशाला व मनाली से कई ट्रैकिंग रास्ते भी मणिमहेश झील के लिए खोज निकाले गए हैं।

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